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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 17 
आखिर आज वो दिन आ ही गया जिसे सावित्री ने कभी नहीं चाहा था । वह लगातार गणना करती रही थी । उसकी गणना के अनुसार आज सत्यवान का आखिरी दिन था । आज के दिन के लिये उसने तीन दिन पहले से कठोर व्रत प्रारंभ कर दिया था । विगत तीन दिनों से महामृत्युंजय मंत्र का पाठ किया जा रहा था । वन में रहने वाले सभी ऋषि, मुनि, तपस्वी लोगों को बुलवाकर उनसे यज्ञ में आहुति दिलवाई थी उसने । वह विगत तीन दिवस से निराहार रहकर व्रत करती रही । आज उसने यज्ञ का समापन किया था । समापन पर सभी को भोजन करवाया गया । ऋषि मुनियों ने उसे अखंड सौभाग्यवती , पुत्रवती होने का आशीर्वाद दिया था । ऋषि मुनियों को क्या पता था कि उसके भाग्य में वैधव्य लिखा है । मां बनना उसके भाग्य में नहीं है । वह मन ही मन सशंकित थी । उसने सुन रखा था कि ऋषि मुनियों का आशीर्वाद कभी व्यर्थ नहीं जाता है । लेकिन देवर्षि नारद का कथन क्या मिथ्या हो सकता है ? वह भयभीत थी । आज उसे ऐसे ही आशीर्वाद की बहुत आवश्यकता थी । इन आशीर्वादों से उसे कुछ तसल्ली सी मिली थी । उसने मन ही मन सोचा कि काश ये आशीर्वाद फलीभूत हो जायें । 

सास ससुर को भोजन कराने के पश्चात सावित्री उनका आशीर्वाद लेने गई । दोनों जने भाव विह्वल होकर उसे आशीर्वाद देने लगे । "सदा सुहागिन रहो । कांतिवान, बलवान पुत्रों की माता बनो । अपने पति की प्यारी बनो । सदैव मनोहर कांति वाली बनी रहो" । उसकी सेवा से गदगद होकर वृद्ध सास ससुर का रोम रोम आशीर्वाद दे रहा था । सास ने उसे अपने अंक में भरकर कहा "पुत्री, विगत चार दिन से तुम निराहार रहकर कठिन व्रत कर रही हो । अब पारण कर लो पुत्री । दोपहर हो गई है" । 
"माते, मेरा व्रत अभी पूरा नहीं हुआ है । जब तक मेरा मनोरथ पूरा नहीं होगा तब तक मैं व्रत नहीं खोलूंगी । आप तो मुझे यह आशीर्वाद दीजिए कि मेरा मनोरथ पूर्ण हो जाए" । 
"मैं क्या आशीर्वाद दूं पुत्री तुझे , मेरी तो हर सांस तुझे आशीर्वाद दे रही है । मैं तो ईश्वर से प्रार्थना ही कर सकती हूं कि वे तेरा हर मनोरथ पूरा करें" 
"आपने आशीर्वाद दे दिया है माते, तो अब मेरा मनोरथ पूर्ण हो ही जायेगा । अब मुझे विश्वास हो गया है । कांत वन से लकड़ियां लाने की कह रहे थे । यदि आप दोनों अनुमति दें तो मैं भी कांत के साथ चलकर इनका हाथ बंटा लूं" ? उसने हाथ जोड़कर अनुमति मांगी । 
"पुत्री, तुम पिछले चार दिन से कठोर व्रत रख रही हो और निराहार भी हो । तुम्हारा बदन कृश हो गया है । थोड़ा विश्राम कर लो पुत्री । आज केवल सत्यवान को ही जाने दो पुत्री, तुम कल चले जाना" । 
"माते, आपका प्रत्येक वचन अक्षरश: सत्य है परन्तु मेरा व्रत अभी पूर्ण नहीं हुआ है । मेरे इस व्रत में मुझे पति की सेवा प्रत्येक पल करनी है । यदि मैं कांत के साथ वन में नहीं जाऊंगी तो मेरा व्रत भंग हो जायेगा । फिर मेरा मनोरथ कैसे पूर्ण होगा माते" । सावित्री ने अपनी विवशता बता दी । 
"यदि ऐसा है तो तुम अवश्य साथ जाओ, पुत्री । हमारा आशीर्वाद तुम दोनों के साथ सदैव है" । सास ने उसका मस्तक सूंघकर उसे वात्सल्य से मालामाल कर दिया । 

सत्यवान और सावित्री दोनों वन में लकड़ी काटने चले गये । रास्ते में सत्यवान उसे छेड़ते हुए जा रहा था "आज तो तुम्हारा सौन्दर्य शरद पूर्णिमा के चांद की तरह निखर आया है । क्या कोई विशेष बात है प्रिये" ? 
"आपका साथ ही मेरे लिए विशेष बात है स्वामी । एक पतिव्रता स्त्री के लिए तो उसका पति ही भगवान होता है । आपकी सेवा करने का सौभाग्य देकर सासू मां ने मुझ पर असीम कृपा की है नाथ । आपके प्रेम की चांदनी में नहाकर ये सौन्दर्य और निखर गया है नर श्रेष्ठ । मेरी एक प्रार्थना है स्वामी" सावित्री सत्यवान के चरणों पर गिरकर बोली ।
"आपकी प्रार्थना मेरे लिए आदेश है देवि । बताओ , मैं आपका क्या अभीष्ट करूं" ? 
"आप मुझे अपने चरणों से कभी दूर मत करना । अपने चरणों में सदैव स्थान देना नाथ । बस यही प्रार्थना है" । सावित्री ने सत्यवान के दोनों चरण कसकर पकड़ लिये । 

सत्यवान ने झुककर सावित्री को कंधों से पकड़कर ऊपर उठाया और उसे अपने हृदय से लगाकर कहा "सावित्री, तुम तो मेरी सांस हों । तुम्हारे बिना मैं कुछ भी नहीं हूं । मेरे जीवन का अस्तित्व केवल तुमसे है । तुम्हारी जगह चरणों में नहीं अपितु मेरे हृदय में है देवि । ये प्रार्थना तो मुझे करनी चाहिए क्योंकि तुम्हारे बिना मैं वैसे ही हूं जैसे एक जीव के बिना शरीर होता है । मुझे छोड़कर कभी भी मत जाना प्रिये" सत्यवान भाव विह्वल होकर बोला । 
"ऐसा मत कहिए नाथ । ऐसा कहकर आप मुझ अभागिन को पाप का भागी बना रहे हो । मैं तो आपकी परछाई हूं । जहां आप वहां आपकी परछाई । भला कभी परछाई साथ छोड़ती है क्या" ? सावित्री के नेत्र प्रेम की वर्षा कर रहे थे जिसमें भीगकर सत्यवान "अमर" हो रहा था । 

सघन वन में पहुंच कर सत्यवान लकड़ी काटने लगा और सावित्री कटी हुई लकड़ियों को एकत्रित करने लगी । थोड़ी ही देर में सत्यवान वृक्ष से नीचे उतर कर सावित्री के पास आ गया । 
"क्या हुआ नाथ ? सब कुशल तो है न" ? सावित्री घबरा गई 
"पता नहीं क्या हुआ , अचानक मेरा सिर घूमने लगा है । चक्कर से आ रहे हैं । गला सूख रहा है" कहते कहते सत्यवान चक्कर खाकर गिरने लगा । 

सावित्री समझ गई कि अब उसकी परीक्षा की घड़ी आ गई है । वह सत्यवान को सहारा देकर वट वृक्ष के नीचे ले आई और उसे थोड़ा जल पिलाया । अपनी गोद में उसका सिर रखकर वह अपने आंचल से उसके पसीने पोंछने लगी । धीरे धीरे सत्यवान की पलकें बंद होने लगीं । सावित्री अपने दोनों हाथों में उसका चेहरा थामे रही । 

अचानक उसे कुछ कोलाहल सुनाई दिया । उसने सामने देखा कि एक भैंसे पर एक हृष्ट-पुष्ट काला व्यक्ति सवार होकर उसी की ओर आ रहा है । उसके हाथ में एक "पाश" है । उसकी आंखें और होंठ लाल लाल हैं । भैंसा मस्त चाल चलता हुआ इधर ही आ रहा है । उस व्यक्ति के अधरों पर एक मधुर मुस्कान तैर रही थी । वह सूर्य के समान तेजस्वी था । सावित्री उन्हें देखते ही पहचान गई कि वे यमराज हैं । पर उसने तो सुना था कि जीव को लेने के लिए यमदूत आते हैं, यमराज नहीं । पर ये तो साक्षात यमराज आ रहे हैं । सावित्री ने स्वयं को इस स्थिति के लिए तैयार किया और उसने सत्यवान का सिर अपनी गोदी से उतार कर भूमि पर रख दिया और यमराज के चरणों में प्रणाम कर कहा 
"आप कौन हैं देव ? कांति से तो आप सूर्य देव लग रहे हैं । यहां पर किसलिए आए हैं" ? 

यमराज सावित्री द्वारा प्रणाम करने से बहुत प्रसन्न हुए  । लोग तो यम के नाम से ही डरकर घबरा जाते हैं परंतु यह स्त्री उन्हें प्रणाम कर रही है । वह सावित्री के आतिथ्य सत्कार से प्रसन्न हो गये । 
"मैं सूर्य पुत्र यमराज हूं देवि । सत्यवान की आयु पूरी हो गई है इसलिए उसे लेने आया हूं" 
"मैंने तो सुना था देव कि जीव को लेने यमदूत आते हैं परंतु यहां आपको देखकर आश्चर्य चकित हूं" सावित्री अपनी बातों से यमराज को प्रभावित करने में निमग्न हो गई  । 
"तुमने बिल्कुल सही सुना है सावित्री । साधारण मनुष्यों को लेने यमदूत ही जाते हैं । परंतु सत्यवान कोई साधारण पुरुष नहीं है । वह धर्मात्मा , रूपवान और गुणों का सागर है । इसके अतिरिक्त उसके प्राणों पर तुम्हारा वैसा ही पहरा है जैसे किसी तिजोरी पर किसी पहलवान का पहरा होता है । ऐसी दशा में मुझे ही आना पड़ा इसके प्राण लेने के लिए" । कहकर यमराज ने अपना पाश छोड़ दिया । पाश ने सत्यवान के हृदय से खींचकर जीव बाहर निकाल लिया और उसे बांधकर अपने साथ ले जाने लगे । सत्यवान के प्राण निकल जाने पर उसकी सांसें बंद हो गई और वह निश्चेष्ट हो गया । 

सावित्री ने पहले से ही तय कर लिया था कि उसे क्या करना है । वह यमराज के पीछे पीछे चल दी । पतिव्रत धर्म और उसकी तपस्या का ही परिणाम था कि वह यमराज जी को देख सकती थी और उनसे वार्तालाप कर सकती थी । वह गगन, धरा और जल में चल सकने की सामर्थ्य रखती थी । एक पतिव्रता स्त्री चाहे तो क्या नहीं कर सकती है ? सावित्री ने यमराज का पीछा करना प्रारंभ कर दिया । 

यमराज ने जब सावित्री को पीछे आते हुए देखा तो उन्होंने सावित्री से कहा "पुत्री , अब तू लौट जा । अपने घर जाकर अपने पति की अंत्येष्टि कर और अपना अंतिम धर्म निभा । पति की सेवा करके तू पति के ऋण से उऋण हो चुकी है । तू वहां तक आ चुकी है जहां तक तुझे आना था । बस, इससे आगे आने की तुझे अनुमति नहीं है" । 
"हे देव ! मैं अपने पति को छोड़कर और कहां जाऊं ? शास्त्रों में यही लिखा है कि पत्नी का स्थान अपने पति के चरणों में होता है । मेरे पति को तो आप ले जा रहे हैं तब मैं अन्यत्र स्थान पर प्रसन्न कैसे रह सकती हूं ? मैं अपने धर्म का आचरण कर रही हूं । तत्वदर्शी लोग यह कहते हैं कि सात पद साथ चलने मात्र से मित्रता हो जाती है । इसलिए मैं यह निवेदन करना चाहती हूं कि जिन्होंने अपने मन और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त नहीं की है तो वे वन में जाकर भी तपस्या नहीं कर सकते हैं । जितेन्द्रिय को न तो वन में जाने की आवश्यकता है और न ही किसी गुरुकुल में जाकर व्रत-उपवास करने की । धर्म आचरण का आधार विवेक है । धर्म का आचरण करने से सत्पुरुष परम पद प्राप्त कर लेते हैं "। 

सावित्री की ज्ञान भरी बातों से यमराज प्रसन्न हो गए और बोले "आनन्दिते ! तू अब लौट जा । स्वर, अक्षर , व्यंजन और युक्तियों से भरी हुई तेरी इन बातों से मैं बहुत प्रसन्न हूं । तू मुझसे एक वर मांग सकती है । पर हां, सत्यवान के जीवन के सिवाय ही मांगना । बता , तू वर में क्या मांगेगी" ? 
"भगवन ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिए कि मेरे श्वसुर जो कि अंधे हैं और अपने राज्य से भी च्युत हैं , उन्हें नेत्र और राज्य दोनों मिल जायें तथा वे अग्नि और सूर्य के सदृश बलवान एवं तेजस्वी हो जायें" । सावित्री ने सहजता से कहा 
"सुनयना ! जैसा तू चाहती है वैसा ही होगा । तू पहले ही बहुत थकी हुई है और विगत चार दिनों से निराहार भी है । अत: तू अब लौट जा" । यमराज ने उसे समझाया । 
"एक पतिव्रता स्त्री अपने स्वामी का मुख देखकर ही सब कुछ पा लेती है । फिर उसे भूख और प्यास नहीं लगती । स्वामी का प्रसन्न मुख देखकर उसकी समस्त भूख प्यास समाप्त हो जाती है । जहां तक थकान की बात है , स्वामी का अनुगमन करने में कैसी थकान ? आप यह कैसे सोच सकते हैं कि मैं अपने स्वामी से दूर रहकर जीवित रह सकती हूं ? मेरी गति तो मेरे प्राणनाथ के ही साथ है । जहां वे जाऐंगे, वहीं मुझे भी जाना ही होगा, यही मेरा धर्म है । प्रभो ! मेरी बात सुनिये । सत्पुरुषों का साथ एक बार का ही पर्याप्त होता है । यदि सत्पुरुषों के साथ मित्रता हो जाये तो इससे बढ़कर हितकारी बात कुछ और नहीं है । साधु यानि सज्जन पुरुष का साथ कभी निष्फल नहीं होता है । अत: सत्पुरुषों के ही समीप रहना चाहिए । मेरे स्वामी एक महान सत्पुरुष हैं इसलिए मैं उनके ही साथ रहूंगी । वे जहां जायेंगे , मैं भी वहीं जाऊंगी" । सावित्री की वाणी में आत्मविश्वास था और चेहरे पर तेज था । 
"भामिनी ! तूने शास्त्रानुकूल और सबके कल्याण की बात कही है । वह मेरे मन के अनुकूल है । अत: तूने मुझे एक बार और प्रसन्न कर दिया है । तू एक और वर मांग सकती है । पर हां, सत्यवान के जीवन के सिवाय और कुछ भी मांग लेना" । 
"मेरे श्वसुर और मेरे पिता कभी भी अपना धर्म नहीं छोड़ें । मेरे पिता के कोई पुत्र नहीं है तात ! वे पितृ ऋण से कैसे उऋण होंगें ? अत: उन्हें सौ पुत्र प्राप्त होने का वरदान मांगती हूं" । सावित्री ने न केवल अपने ससुराल का उद्धार कर दिया अपितु अपने मायके को भी तार दिया । 
"एवमस्तु ! अब मैंने तुझे दो वर दे दिये हैं । अब तू लौट जा"
"देव, आपके द्वारा जो निष्काम कर्तव्य कर्म किये जाते हैं वे जगत में बहुत प्रसिद्ध हैं । ज्ञानी लोग आपका उदाहरण देते हैं और सबको आपके आचरण से सीख लेने के लिए कहते हैं । मैं आपसे करबद्ध निवेदन करती हूं । आप मेरी विनती ध्यान पूर्वक सुनिए । मन, वचन और कर्म द्वारा किसी भी प्राणी से द्रोह नहीं करना , सब जीवों पर दया करना ही सनातन धर्म है । महामना लोग अपनी शरण में आये हुए शत्रुओं पर भी दया करते हैं । आप सूर्य के प्रतापी पुत्र हैं । सूर्य का एक नाम विवस्वान् भी है इसलिए सूर्य पुत्र होने के कारण लोग आपको वैवस्वत भी कहते हैं । आप सबके साथ समता में रहकर आचरण करते हैं इसलिए आप धर्मराज कहलाते हैं । आप मेरे पति को अपने साथ लेकर जा रहे हैं और आप मुझसे वापस लौटने को कह रहे हैं । अब आप ही बताइए देव कि आप मुझे मेरे धर्म से च्युत कर रहे हैं अथवा नहीं ? धर्म को आपसे अधिक और कौन जानता है देव ? मैं आपकी शरण में हूं । एक शरणागति के साथ जैसा व्यवहार किया जाता है, आप भी मेरे साथ वैसा ही व्यवहार करें तात् " । सावित्री दोनों हाथ जोड़कर बोली 
"कल्याणी ! तूने जैसी बातें कही हैं वैसी बातें मैंने आज तक कभी नहीं सुनी । मैं तेरी इन ज्ञान भरी बातों से बहुत प्रसन्न हूं । तू एक वर और मांग ले । पर सत्यवान के जीवन को छोड़कर ही मांगना" । यमराज जी का रोम रोम आशीर्वाद दे रहा था 
"भगवन ! आप मेरे प्रति बहुत दयालु हैं जो मेरी समस्त कामनाओं की पूर्ति कर रहे हैं । मैं आपकी अत्यंत आभारी हूं प्रभो । यदि आप मुझसे इतने ही प्रसन्न हैं तो आप मुझे यह वर दीजिए कि मेरे स्वामी के संयोग से मेरे सौ बलवान, पराक्रमी और कुल की साख बढ़ाने वाले पुत्र हों" । अबकी बार सावित्री और भी अधिक विनम्र थी । 
"अपने दोनों कुलों की गरिमा बढाने वाली पुत्री , तेरी बातों से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं । जा , तुझे यह भी वरदान देता हूं । तेरे सौ पुत्र होंगे जो बल और कीर्ति में एक से बढकर एक होंगे । जा पुत्री जा । अब बहुत देर हो चुकी है । अब लौट जा । अब आगे का मार्ग बहुत भीषण है" । यमराज ने उसे डराते हुए कहा 

यमराज की बातों पर सावित्री मुस्कुराई और कहने लगी "आप तो स्वयं धर्म का प्रतिरूप हैं और आप मुझसे अधर्म की बातें क्यों कह रहे हैं ? आपने अभी अभी मुझे 100 पुत्रों की माता होने का वरदान दिया है फिर भी आप मेरे पतिदेव को अपने साथ लेकर जा रहे हैं । अब आप ही बताइए देव कि पति के बिना एक पतिव्रता स्त्री माता कैसे बन सकती है ? फिर भी आप मुझे लौट जाने की बात कह रहे हैं यह अधर्म नहीं तो और क्या है ? आप जैसे धर्मज्ञ देव से ऐसी अपेक्षा नहीं है भगवन" । सावित्री के चेहरे पर विजयी मुस्कान थी । 

यमराज को अब पता चला कि सावित्री ने उनसे क्या ले लिया है ? वे सावित्री की बुद्धिमत्ता, वाक् चातुर्य और उसके विवेक के कायल हो गये । लेकिन वे सोच में भी पड़ गये कि इससे जन्म मृत्यु के नियम प्रभावित होंगे । काफी सोच विचार के बाद यमराज बोले "पुत्री , तुम एक पुत्री , पुत्रवधू और पत्नी के रूप में आदर्श बनोगी । तुम्हारी पतिव्रतता अद्वितीय है । पहले भी बहुत सी पतिव्रता स्त्रियां हुई हैं मगर तुम जैसी न कोई हुई है और न ही होगी । संसार की समस्त पतिव्रता स्त्रियों में तुम्हारा प्रथम स्थान रहेगा , यह मेरा आशीर्वाद है । किन्तु एक समस्या है । यमलोक के नियम के अनुसार किसी की आयु न तो बढाई जा सकती है और न ही कम की जा सकती है । इसलिए सत्यवान की आयु बढ़ाने के लिए किसी की आयु कम करनी होगी । बताओ किस की आयु कम करूं मैं" ? 
"भगवन, मैं अपने पति के काम आऊं, इससे अधिक श्रेयस्कर और  कौन सा धर्म है मेरा ? आप मेरी समस्त आयु मेरे पतिदेव को दे दीजिए" सावित्री ने आर्त स्वर में कहा 
"नहीं पुत्री मैं यह नहीं कर सकता हूं । ऐसा करता हूं कि तुम्हारी शेष आयु में से आधी आयु सत्यवान को दे देता हूं । अब ठीक है न" ? अब यमराज भी मुस्कुरा दिये । 
सावित्री ने इसकी अनुमति दे दी और यमराज ने सत्यवान का जीव छोड़ दिया । यमराज ने कहा "देवि, तुमने यमराज को भी परास्त करके यह सिद्ध कर दिया है कि स्त्री चाहे तो क्या नहीं कर सकती है ? तुम हमेशा हमेशा के लिए अमर हो जाओगी । जब तक सूरज चांद रहेंगे पतिव्रता स्त्रियों में तुम्हारा नाम सबसे पहले उच्चारित होगा । अब जाओ पुत्री और प्रसन्नता पूर्वक अपनी जिंदगी जी लो" । कहकर यमराज वहां से चल दिये । 

सावित्री सत्यवान के पास आ गई । अब सत्यवान की नाड़ी चलने लगी थी । सावित्री ने सत्यवान का सिर पुन: अपनी गोदी में रख लिया और उसके सिर पर हौले हौले हाथ फिराने लगी । 

थोड़ी देर में सत्यवान हड़बड़ाकर उठ बैठा "सावित्री , सावित्री" जोर जोर से बोला 
"क्या हुआ नाथ" ? सावित्री घबरा गई 
"पता नहीं ! एक सपना देखा जिसमें एक काला सा मुस्टंडा मुझे पकड़ कर कहीं ले जा रहा था । मैं बुरी तरह छटपटा रहा था मगर वह जबरन मुझे ले जा रहा था । अचानक उसने मुझे ऊपर से पटक दिया और मेरी नींद खुल गई" । सत्यवान का चेहरा पसीने में भीगा हुआ था । 

सावित्री ने सत्यवान का चेहरा अपने आंचल से पोंछते हुए कहा "नाथ, बड़ा भयावह सपना देखा आपने । पर सपने तो सपने ही होते हैं इनका वास्तविकता से कोई लेना देना नहीं होता है इसलिए चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं हे । मेरे होते हुए आपको कौन ले जा सकता है ? मैं आपका कवच हूं" । सावित्री ने मुस्कुरा कर कहा । भामिनी की एक मुस्कान से पतियों के सारे दुख दूर हो जाते हैं । सत्यवान और सावित्री दोनों घर आ गये । घर पर देखा कि सत्यवान के पिता द्युमत्सेन की आंखें सही हो गई हैं और वे तेजवान बन गये हैं । थोड़े समय पश्चात उन्हें उनका राज्य भी वापस मिल गया । अब सत्यवान युवराज बन गया और सावित्री रानी बन गई । सावित्री के पिता अश्वपति के सौ पुत्र पैदा हो गये । इस प्रकार सावित्री ने दोनों कुलों का उद्धार कर दिया । 
आख्यान का समापन करते हुए जयंती ने कहा "महासती सावित्री ने हम स्त्रियों के लिए पतिव्रत धर्म का एक खूबसूरत उदाहरण प्रस्तुत किया है । हम सभी नारियों को उनके बताये मार्ग पर चलना चाहिए क्योंकि यही मार्ग है जो हमें स्वर्ग लोक लेकर जाता है" । 

महाराजा वृषपर्वा ने शर्मिष्ठा और महारानी को आवाज दी और वे लोग अपने महल में चले गये । 

क्रमश: 

श्री हरि 
8.5.23 

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2 Comments

Nice 👍🏼

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Hari Shanker Goyal "Hari"

18-May-2023 05:14 PM

🙏🙏

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